खींच रहा था वो मेरा छाता|
जैसे यह मेरा नहीं उसका छाता|
दो सौ रुपये देकर खरीदा था में इसे,
तो फिर ऐसे कैसे जाने देता इसे?
ज़ोर मैंने भी लगाया.
ज़ोर उसने भी लगाया|
बहुत सारे खिंचावों के बाद,
फट गया मेरा छाता, हो गया बर्बाद|
उस छाते का काला कपडा ,
उडान ले रहा था, फैलाकर पंख फटफटा|
खाली डंडा ही मेरे हाथ में बचा था|
देखकर उसे मन में मेरा दुःख मचा था|
अब क्या मुंह दिखाऊ माँ जी को?
कैसे कहूं "फट गया छाता" पिताजी को?
मेरे दिल में हो रहा था हलचल|
ऊपर आसमान में भी शुरू हुआ एक हलचल|
हाथों से ढक लिया अपने सिर को|
भागा घर की तरह देती गालियाँ हवा को|
वह हवा, जो इसी तरह बहुतों की छाता में जाएगा|
खैर छोड़ो, अब जो होगा देखा जाएगा|
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