Thursday, 28 April 2011

मेरा छाता

खींच रहा था वो मेरा छाता|
जैसे यह मेरा नहीं उसका छाता|

दो सौ रुपये देकर खरीदा था में इसे,
तो फिर ऐसे कैसे जाने देता इसे?

ज़ोर मैंने भी लगाया.
ज़ोर उसने भी लगाया|

बहुत सारे खिंचावों के बाद,
फट गया मेरा छाता, हो गया बर्बाद|

उस छाते का काला कपडा ,
उडान ले रहा था, फैलाकर पंख फटफटा|

खाली डंडा ही मेरे हाथ में बचा था|
देखकर उसे मन में मेरा दुःख मचा था|

अब क्या मुंह दिखाऊ माँ जी को?
कैसे कहूं "फट गया छाता" पिताजी को?

मेरे दिल में हो रहा था हलचल|
ऊपर आसमान में भी शुरू हुआ एक हलचल|

हाथों से ढक लिया अपने सिर को|
भागा घर की तरह देती गालियाँ हवा को|

वह हवा, जो इसी तरह बहुतों की छाता में जाएगा|
खैर छोड़ो, अब जो होगा देखा जाएगा|

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